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पहाड़ी औरत .............

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उम्मीदों का थामे हाथ , सुबह घर से निकलती हूँ .... लकड़ी चुनती,  चारा ,पानी ढोती , दिन भर दुर्गम चट्टानों से  लडती हूँ .... बुवाई करती ,कटाई करती , अपने श्रमगीतों से बियावान पहाड़ों को जगातीं हूँ .... गुनगुनाती हुयी कोई पहाड़ी गीत , डूबते सूरज के साथ  थकी सी  लौट आती हूँ .... इसी तरह पता नहीं कब होती है सुबह ,                                                                           कब ढल जाती है शाम.... रात फिर कराती है , मुझे मेरे होने का अहसास.... फिर भर जाती  हूँ ऊर्जा से, एक नए दिन का सामना करने के लिए .... फिर हो जाती हूँ  तैयार, अपने अलावा सभी के लिए जीने को.... सदियों से चलता आ रहा है, मेरा ये  नियमित और बेरहम जीवनचक्र .... उम्मीद में एक खुशनुमा सवेरे की, हं सते-हंसते  सारे दुख सह  लेती हूँ .... और एक दिन 'मेरा वक़्त भी बदलेगा'  सुख की ये आस लिए बेवक्त चली जाती हूँ ..      ...............................................................     ममता